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तो क्या करूं ? सपने देखना छोड़ दूं ?

  • Writer: Deepak RS Sharma
    Deepak RS Sharma
  • Jul 22, 2020
  • 2 min read

तो क्या करूं ? सपने देखना छोड़ दूं ?

मेरा नाम ..... नाम छोड़िए नाम में क्या रखा है । Even Shakespeare said ' What is in a name? '

शायद नाम ज़रूरी नहीं ।

तो क्या ज़रूरी है ? पैसा ?

हां जब किसी को दो रोटी के लिए जंग लड़ते देखता हूं, तो लगता है पैसा ज़रूरी है ।

पर जब पैसे वालों को भी मुरझाए चेहरे लिए घूमते देखता हूं, तो इस बात पर भी शक होने लगता है ।

अरे हां याद आया ज़िन्दगी में पैशन ज़रूरी है, सपने ज़रूरी है ।

पर तुम्हारे पास तो सब था । नाम, पैसा, पैशन, सपने और अपने भी।

पिछली रात मैं ' काई पो चे ' देख रहा था । पापा से पहले मतलब पूछा की ये होता क्या है ? उन्होंने बताया कि जब पतंगबाजी में पतंग काटते है तो जश्न में चिल्लाते हैं ।

फिल्म पूरी होते होते एक रिश्ता सा जुड़ गया तुमसे । तुम्हारी तरह खुली हवा में उड़ने को जी चाहा।

अगली दोपहर खबर अाई तुम्हारे अपने हाथों जीवन का सांसों की डोरी से रिश्ता टूट गया ।


तब से मेरे पापा बहुत डरे हुए हैं। उनको देखता हूँ तो सोचता हूँ तुम्हारे पापा का क्या हाल होगा ! एक सिहरन सी मेरे शरीर से दौड़ जाती है, सांस ऊपर की ऊपर नीचे की नीचे रुक जाती है ।

मै एक्टर बनना चाहता हूं । ये सपना मैंने और मेरी मां ने साथ देखा था । स्टेज पर मेरा सीन आने पर सबसे तेज सीटी वो ही बजाती है । पापा अपने आप पर काबू कर लेते हैं, पर अंदर से उनका मन भी हिलोरे लेता है ।

पर शो के बाद उनसे बात करो तो कहेंगे, अभी सुशांत वाली बात नहीं है तेरे काम में । वो गंभीरता और चंचलता का अनूठा मेल होना बाकि है अभी तेरे अभिनय में ।


मैं दसवीं की परीक्षा दे चुका हूं । रिजल्ट भी आ चुका है । मै उस मोड़ पर खड़ा हूं जहां हर स्टूडेंट को अपनी स्ट्रीम चुननी होती है । महीने भर पहले मुझे पता था मुझे क्या करना है ।

पर अब ....

साला तुम जैसे दोगले लोग पहले हमें सपने बेचते हो, साइंस, बिजनेस से हटकर आर्टिस्ट बनने की प्रेरणा देते हो और उसके बाद... श अ...

मानता हूं रही होगी तुम्हारी कोई मज़बूरी, रहे होंगे तुम्हारे कुछ अधूरे सपने । हो सकता है तुम्हारी जीवन लीला किसी और के हाथों समाप्त हुई हो । किसी और ने तुम्हारे एहसासों को, सपनों को रौंदा हो ।

पर हीरो तो लड़ता है ना, तुम ही हम छोटे शहर वालो के हीरो थे, जो हर मुसीबत को हराकर ऊपर उठा था ।

सिर्फ तुम्हारी जान नहीं गई, क़त्ल हमारे सपनों का, हमारे हौंसले का भी हुआ है । अब खुली आंखें सिर्फ बेरहम असलियत देखती है।

घर में चारों और नजर दौड़ाकर देखता हूं तो समझ आता है कि अपने ज़रूरी हैं, मां की मासूम मुस्कान और पापा की उठी हुई नज़रें ज़रूरी है । उन्हें इस अनजान खौफ से दूर रखना चाहता हूं ।

लेकिन उसके लिए खुद को क्या समझाऊँ। क्या करूं ?

तो क्या सपने देखना छोड़ दूं ।

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